
हमारे 16 संस्कार
वेद-पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में संस्कारों Sankar की आवश्यकता बतलाई गयी है । जैसे खान से सोना, हीरा आदि निकलने पर उसमें चमक-प्रकाश तथा सौंदर्य के लिए उसे तपाकर, तराशकर मैल हटाना एवं चिकना करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार मनुष्य में मानवीय शक्तिका आदान होने के लिए उसे सुसंस्कृत होना आवश्यक है, अर्थात् उसका पूर्णतः विधिपूर्वक संस्कार संपन्न करना चाहिये । वास्तव में विधिपूर्वक संस्कार-साधनसे दिव्य ज्ञान उत्पन्न कर आत्मा को परमात्माके रूप में प्रतिष्ठित करना ही मुख्य संस्कार है और मानव-जीवन प्राप्त करने की सार्थकता भी इसी में है ।
संस्कारों से आत्मा- अंतःकरण शुद्ध होता है । संस्कार मनुष्य को पाप और अज्ञानसे दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त करते हैं । संस्कार मुख्यतः दो प्रकारके होते हैं- 1. मलापनयन और 2. अतिशयाधान । किसी दर्पण आदिपर पड़े हुए धूल आदि सामान्य गन्दगी को वस्त्र आदि से पोंछना-हटाना या स्वच्छ करना मलापनयन कहलाता है और फिर किसी रंग या तेजोमय पदार्थ द्वारा उसी दर्पणको विशेष चमत्कृत या प्रकाशमय बनाना अतिशयाधान कहलाता है । अन्य शब्दों में इसे ही भावना, प्रतियत्न या गुणाधान संस्कार कहा जाता है ।
महर्षि व्यास द्वारा प्रतिपादित प्रमुख षोडश संस्कार इस प्रकार है – 1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3. सीमन्तोन्नयन, 4. जातकर्म, 5. नामकरण, 6. निष्क्रमण, 7. अन्नप्राशन, 8. चूड़ाकरण, 9. कर्णवेध, 10. व्रतादेश (उपनयन), 11. वेदारम्भ, 12. केशांत (गोदान), 13. वेदस्नान (समावर्तन), 14. विवाह, 15. विवाहाग्निपरिग्रह, 16. त्रेताग्निसंग्रह ।
आगे इन्ही सोलह संस्कारोंका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है । इसका आरम्भ जन्मसे पूर्व ही प्रारम्भ हो जाता है ।
1. गर्भधान संस्कार (Garbhadhaan Sanskar) :-
विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भधान से अच्छी वर्ष सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है । इस संस्कार से वीर्य सम्बन्धी तथा गर्भ सम्बन्धी पापका नाश होता है, दोषका मार्जन तथा क्षेत्रका संस्कार होता है । यही गर्भाधान संस्कारका फल है । गर्भधान के समय स्त्री-पुरुष जिस भावसे भावित होते हैं, उसका प्रभाव उनके रज-वीर्यमें भी पड़ता है । उसी रज-वीर्यजन्य संतान में भी वे भाव प्रकट होते हैं । अतः शुभ मुहूर्तमें शुभ मन्त्रसे प्रार्थना करके प्रदान करें । इस विधानसे कामुकता का दमन और शुभ-भावापन्न मन का सम्पादन हो जाता है ।
2. पुंसवन संस्कार (Punsavan Sanskar) :-
पुत्र की प्राप्ति के लिए शास्त्रों में पुंसवन-संस्कारका विधान है । गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वरूपप्रतिपादनम् । (स्मृतिसंग्रह). इस गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो, इसलिए पुंसवन-संस्कार किया जाता है । पुन्नामो नरकात् त्रायते इति पुत्रः । अर्थात् पुम् नामक नरक से जो त्राण (रक्षा) करता है, उसे पुत्र कहा जाता है । इस वचन के आधार पर नरक से बचनेके लिये मनुष्य पुत्र-प्राप्ति की कामना करता है । मनुष्य की इस अभिलाषा की पूर्ति के लिये ही पुराणों में पुंसवन-संस्कार का विधान मिलता है । जब गर्भ दो-तीन मासका होता है अथवा दर्भिणीमें गर्भके चिह्न स्पष्ट हो जाते हैं, तभी पुंसवन-संस्कार का विधान बताया गया है ।
शुभ मङ्गलमय मुहूर्तमें माङ्गलिक पाठ करके गणेश आदि देवताओंका पूजन कर वटवृक्ष के नवीन अंङ्कुरो तथा पल्लवों और कुश की जड़को जलके साथ पीसकर उस रसरूप औषधि को पति गर्भीणी के दाहिने नाकसे पिलाये और पुत्रकी भावना से- सुसंस्कृत तथा अभिमन्त्रित भाव-प्रधान नारी के मनमें पुत्रभाव का प्रवाह प्रवाहित हो जाता है । जिसके प्रभाव से गर्भके मांस-पिंड में पुरुषके चिह्न उत्पन्न होते हैं । पुंसवन-संस्कार का ही उपाङ्गभूत एक संस्कार होता है जो अवलोभन कहलाता है । इस संस्कार का यह प्रयोजन है कि इससे गर्भस्थ शिशुकी रक्षा होती है और असमय में गर्भ च्यूत नहीं होने पाता ।
पुत्रकी प्राप्ति के लिए पुराणों में पुंसवन नामक एक व्रत-विशेष का विधान भी बतलाया गया है, जो एक वर्षतक चलता है । स्त्रियाँ पति की आज्ञासे ही इस व्रतका संकल्प लेती हैं । भागवत के छठे स्कन्ध, अध्याय 18-19 में बताया गया है कि महर्षि कश्यप की आज्ञासे अदितिने इन्द्रके वधकी क्षमता रखनेवाले पुत्रकी कामना से यह व्रत किया था ।
3. सीमन्तोन्नयन संस्कार (Seemantonnayan Sanskar) :-
गर्भ के छठे या आठवें मास में संस्कार किया जाता है । इस संस्कार का फल भी गर्भकी शुद्धि ही है । सामान्यतः गर्भ में चार मासके बाद बालक के अङ्ग-प्रत्यङ्ग-ह्रदय आदि प्रकट हो जाते हैं । चेतना का स्थान ह्रदय बन जाने के कारण गर्भ में चेतना आ जाती है । इसलिये उसमें इच्छाओं का उदय होने लगता है । वे माता के ह्रदयमें प्रतिबिम्बित होकर इछाए प्रकट होती हैं, जो दोहद कहलाता है । गर्भ में जब मन तथा बुद्धि में नूतन चेतनाशक्ति का उदय होने लगता है, तब इनमें जो संस्कार डाले जाते हैं, उनका बालक पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । इस समय गर्भ शिक्षण-योग्य होता हैं । महाभक्त प्रह्लाद को देवर्षि नारदजी का उपदेश तथा अभिमन्युको चक्रव्यूह- प्रवेश का उपदेश इसी समय में मिला था । अतः माता-पिताको चाहिये कि इन दिनों विशेष सावधानी के साथ शास्त्र सम्मत व्यवहार रखें ।
4. जातकर्म संस्कार (Jaatakarm Sanskar) :-
इस संस्कार से गर्भस्रावजन्य सारा दोष नष्ट हो जाता है । बालक का जन्म होते ही यह संस्कार करने का विधान है । नाल छेदनसे पूर्व बालक को स्वर्णकी सलाक से अथवा अनामिका अँगलीसे मधु तथा धृत चटाया जाता है । इसमें स्वर्ण त्रिदोषनाशक है । धृत आयुवर्धक तथा वात- पित्तनाशक है एवं मधु कफनाशक है । इन तीनोंका सम्मिश्रण आयु, लावण्य तथा मेधाशक्तिको बढ़ानेवाला तथा पवित्रकारक होता है । बालकके पिता अथवा अचार्यको बालकके कानके पास उसके दीर्घायुके लिये अग्निदेव वनस्पतियों द्वारा आयुष्मान् है, उसी प्रकार उनके अनुग्रहसे मैं तुम्हें दीर्घायु से युक्त करता हूँ ।
5. नामकरण संस्कार (Naamakaran Sanskar) :-
इस संस्कारका फल आयु तथा तेज की वृद्धि एवं लौकिक व्यवहार की सिद्धि बताया गया है । जन्म से दस रात्रि के बाद 11 वें दिन या कुलक्रमानुसार सौवें दिन या एक वर्ष बीत जाने के बाद नामकरण-संस्कार करने की विधि है । पुरुष और स्त्रियोंका नाम किस प्रकार का रखा जाय, इन सारी विधियों का वर्णन पुराणों में बताया गया है ।
6. निष्क्रमण संस्कार (Nishkraman Sanskar) :-
इस संस्कार का फल विद्वानों ने आयुकी वृद्धि बताया है । यह संस्कारके बालकके चौथे या छठे मास में होता है, सूर्य तथा चंद्रादि देवताओं का पूजन कर बालक को उनके दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है । बालक का शरीर पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश से बनता है । बालक का पिता इस संस्कार के अन्तर्गत आकाश आदि पंचभूतों के अधिष्ठाता देवताओं से बालकके कल्याण की कामना करता है । हे बालक ! तेरे निष्क्रमणके समय द्योलोक तथा पृथिवीलोक कल्याणकारी सुखद एवं शोभास्पद हो । सूर्य तेरे लिये कल्याणकारी प्रकाश करें । तेरे ह्रदयमें स्वच्छ कल्याणकारी वायुका संचरण हो । दिव्य जलवाली गंङ्गा-यमुना आदि नदियाँ तेरे लिये निर्मल स्वादिष्ट जलका वहन करें ।
7. अन्नप्राशन संस्कार (Annapraashan Sanskar) :-
इस संस्कार के द्वारा माताके गर्भ में मलिन-भक्षण-जन्य जो दोष बालक में आ जाते है, उसका नाश हो जाता है । जब बालक 6 – 7 मासका होता है और दाँत निकलने लगते हैं, पाचनशक्ति प्रबल होने लगती है, तब यह संस्कार किया जाता है । शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करनेके पश्र्चात् माता-पिता आदि सोने या चाँदी की शलाका या चम्मच से निम्नलिखित मंत्रसे बालकको हविष्यान्न (खीर) आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न चटाते हैं- हे बालक ! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों । क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ यक्ष्मा-नाशक है तथा देवान्न होने से पापनाशक है ।
इस संस्कार के अंतर्गत देवों को खाद्य-पदार्थ निवेदित कर अन्न खिलाने का विधान बताया गया है । अन्य ही मनुष्यका स्वाभाविक भोजन है, उसे भगवान का कृपाप्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए ।
8. चूड़ाकरण संस्कार (Choodaakaran Sanskar) :-
इसका फल बल, आयु तथा तेजकी वृद्धि करना है । इसे प्रायः तीसरे वर्ष या पांचवें या कुलपरंपरा के अनुसार करने का विधान है । मस्तक के भीतर ऊपरको जहाँपर बालोंका भँवर होता है, वहाँ संपूर्ण नाडियों एवं संधियों का मेल होता है । उसे अधिपति मर्मस्थान कहा गया है, इस मर्मस्थानकी सुरक्षाके लिए ऋषियोंने उस स्थानपर चोटी रखनेका विधान किया है । जैसे हे बालक ! मैं तेरे दीर्घायु के लिए तथा तुम्हें अन्नके ग्रहण करनेमें समर्थ बनाने के लिये, उत्पादन- शक्ति-प्राप्ति के लिये, ऐश्वर्य-वृद्धि के लिये, सुंदर संतानके लिये, बल तथा पराक्रम-प्राप्ति के योग्य होने के लिये तेरा चूडाकरण (मुंडन) संस्कार करता हूं । इस मंत्रसे बालकको संबोधित करके शुभ मुहूर्त में कुशल नाई से बालकका मुंडन करावे । बाद में सिर में दहीं-मक्खन लगाकर बालक को स्नान कराकर मांगलिक क्रियाएँ करनी चाहिये ।
9. कर्णवेध संस्कार (Karnavedh Sanskar) :-
पूर्ण पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की प्राप्तिके लिये यह संस्कार किया जाता है । शास्त्रोंमें कर्णवेधरहित पुरुषको श्राद्धका अधिकारी नहीं माना गया है । इस संस्कार को छः माससे लेकर सोलहवें मास तक अथवा तीन, पाँच आदि विषम वर्षमें कुलक्रमागत आचार को मानते हुए संपन्न करना चाहिए । सूर्यकी किरणें कानोंके छिद्रसे प्रविष्ट होकर बालक-बालिकाको पवित्र करती हैं और तेज- संपन्न बनाती है । यद्यपि ब्राह्मण और वैश्यका रजतशलाका (सूई) से, क्षत्रियका स्वर्णशलाका से तथा शूद्रका लौहशलाका द्वारा कान छेदने का विधान है तथापि वैभवशाली पुरुषोंको स्वर्णशलाका से ही यह क्रिया संपन्न करानी चाहिये । पवित्र स्थानमें शुभ समयों में देवताओं का पूजन कर सूर्यके सन्मुख बालक के प्रथम दाहिने कानमें तदनन्तर बायें कानमें सूईसे छेदन करे । बालिका के पहले बायें फिर दाहिने कानमें छेदन करें ।
10. उपनयन संस्कार (Upanayan Sanskar) :-
इस संस्कार से द्विजत्व की प्राप्ति होती हैं । शास्त्रों तथा पुराणों में तो यहाँ तक कहा गया है कि इस संस्कारके द्वारा ब्राह्मण-क्षत्रिय और वैश्यका द्वितीय जन्म होता है । विधिवत् यज्ञोपवित धारण करना इस संस्कार का मुख्य अंग है । इस संस्कार के द्वारा अपने आत्यंतिक कल्याण के लिये वेदाध्ययन तथा गायत्री-जप और श्रौत-स्मार्त आदि कर्म करने का अधिकार प्राप्त होता है । शास्त्रविधि से उपनयन-संस्कार हो जानेपर गुरु बालक के कंधों तथा ह्रदय का स्पर्श करते हुए कहता है- मैं वैदिक तथा लौकिक शास्त्रों के ज्ञान कराने वाले वेदव्रत तथा विद्याव्रत- इन दो व्रतों को तुम्हारे ह्रदयमें स्थापित कर रहा हूँ । तुम्हारा चित-मन या अंतःकरण मेरे अंतःकरण का ज्ञानमार्गमें अनुसरण करता रहे अर्थात् जिस प्रकार मैं तुम्हें उपदेश करता रहूँ, उसे तुम्हारा चित ग्रहण करता चले । मेरी बातों को तुम एकाग्र-मनसे समाहित होकर सुनो और ग्रहण करो । प्रजापति ब्रह्मा एवं बुद्धि-विद्याके स्वामी बृहस्पति तुम्हें मेरी विद्याओं से संयुक्त करें ।
इस प्रकार विदाध्ययनके साथ-साथ गुरु द्वारा बालक को कई उपदेश प्रदान किये जाते हैं । प्राचीन कालमें केवल वाणी से ही ये शिक्षाएँ नहीं दी जाती थीं, प्रत्युत गुरुजन तत्परतापूर्वक शिष्योंसे पालन भी करवाते थे ।
11. वेदारम्भ संस्कार (Vedaarambh Sanskar) :-
उपनयन हो जाने पर बालक का वेदारम्भ में अधिकार प्राप्त हो जाता है । ज्ञानस्वरूप वेदों के सम्यक् अध्ययन से पूर्व मेधाजनन नामक एक उपाङ्ग-संस्कार करनेका विधान है । इस क्रियासे बालक की मेधा, प्रज्ञा, विद्या, तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है और वेदाध्ययन आदिमें विशेष अनुकूलता प्राप्त होती है तथा विद्याध्ययन में कोई विघ्न नहीं होने पाता । वेदविद्या के अध्ययनसे सारे पापों का लोप होता है, आयुकी वृद्धि होती है, सारी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, यहाँ तक कि उसके समक्ष साक्षात् अमृत रस पानेके रूप में उपलब्ध हो जाते है ।
गणेश और सरस्वती की पूजा करने के पश्र्चात् विदारम्-विद्यारम्भ में प्रविष्ट होने का विधान है । शास्त्रों में कहे गये निषिद्ध तिथियोंमें वेदका स्वाध्याय नहीं करना चाहिये । अपने गुरुजनोंसे अंगोंसहित वेदों तथा उपनिषदोंका अध्ययन करना चाहिये । तत्वज्ञान की प्राप्ति कराना ही इस संस्कार का परम प्रयोजन है । द्वितीय तथा तृतीय वर्षोमें क्रमशः वैदिक महाव्रत तथा उपनिषद्- व्रत किया जाता है, जिसमें वेदोंकी ऋचाओ तथा उपनिषदोंका श्रद्धापूर्वक पाठ किया जाता है और अंतमें सावित्री-स्नान होता है । इसके अनन्तर वेदाध्यायी स्नातक कहलाता है । इसमें सभी मंत्र- संहिताओं का गुरुमुख से श्रवण तथा मनन करना होता है । यह विद्यारंभ मुख्यतः ब्रह्माचार्यश्रम- संस्कार है ।
12. केशांत संस्कार (गोदान) (Keshaant Sanskar) :-
वेदारंभ संस्कार में ब्रह्मचारी गुरुकुल में वेदोंका स्वाध्याय तथा अध्ययन करता है । उस समय वह ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता है तथा उसके लिये केश और श्मश्रु(दाढी), मौंझी-मेखलादि धारण करने का विधान है । जब विद्याध्ययन पूर्ण हो जाता है, तब गुरुकुल में ही केशांत-संस्कार सम्पन्न होता है । इस संस्कार में भी आरंभमें सभी संस्कारों की तरह गणेशादि देवोंका पूजन कर तथा यज्ञादि के सभी अंगभूत कर्मोका सम्पादन करना पड़ता है । तदन्ततर श्मश्रु-वपन की क्रिया संपन्न की जाती है । इसलिये यह श्मश्रु-संस्कार भी कहलाता है । केशान्त शब्द से श्मश्रु का ही ग्रहण होता है, अतः मुख्यतः श्मश्रु-संस्कार ही केशान्त-संस्कार है । इसे गोदान-संस्कार भी कहा जाता है, क्योंकि गौ यह नाम केश का भी है और केशोंका अन्तभाग अर्थात् समीपस्थिति श्मश्रुभाग ही कहलाता है । यह संस्कार केवल उत्तरायणमें किया जाता है, तथा प्रायः षोडशवर्ष में होता है ।
13. (वेदस्नान) समावर्तन (Vedasnaan) :-
समावर्तन विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है । विद्याध्ययम पूर्ण हो जानेके अनंतर स्नातक ब्रह्मचारी अपने पूज्य गुरुकी आज्ञा पाकर अपने घरमें समावर्तन होता है- लौटता है । इसीलिये इसे समावर्तन-संस्कार कहा जाता है । गृहस्थ-जीवनमें प्रवेश पानेका अधिकारी हो जाना समावर्तन-संस्कारका फल है । वेद-मंत्रोंसे अभिमंत्रित जलसे भरे हुए 8 कलशोसे विशेष विधिपूर्वक ब्रह्मचारीको स्नान कराया जाता है, इसीलिये यह वेदस्नान-संस्कार भी कहलाता है ।
हे वरुणदेव ! आप हमारे कटि एवं ऊर्घ्वभाग के मौझी उपवीत एवं मेखलाओंको हटाकर सूतकी मेखला तथा उपवीत पहनने की आज्ञा दें और निर्विघ्न अग्रिम जीवन का विधान करें । इसके बाद गुरुजन घर आते समय उसे लोक-परलोक- हितकारी एवं जीवनोपयोगी शिक्षा देते हैं- सत्य बोलना, धर्मका आचरण करना, स्वाध्यायमें प्रमाद न करना, अचार्य के लिए प्रिय धन लाकर देना, संतान-परम्पराका उच्छेद न करना, सत्यमें प्रसाद न करना, कुशल कर्मोमें प्रमाद न करना, ऐश्वर्य देनेवाले कर्मोमें प्रमाद न करना, स्वाध्याय और प्रवचनमें प्रमाद न करना, देवकार्यो और पितृकार्योमें प्रमाद नहीं करना । माता-पिता, आचार्य तथा अतिथिको देवता माननेवाले होओ । जो अनिद्य कर्म हैं, तुम्हें उन्हींकी ओर प्रवृत्ति होनी चाहिये, अन्य कर्मोकी ओर नहीं । हमारे जो शुभ आचरण है, तुम्हें उन्हींका आचरण करना चाहिये, दूसरों का नहीं ।
इस उपदेश-प्राप्तिके अनन्तर स्नातकको पुनः गुरुको प्रणामकर मौझी मेखला आदिका परित्याग करके गुरु से विवाह कि आज्ञा लेकर अपने माता-पिताके पास आना चाहिए और माता-पिता आदि अभिभावकोंको उस वेद-विद्याव्रत-स्नातक के घर आनेपर माङ्गलिक वस्त्राभूषमों से अलंकृतकर मधुपर्क आदिसे उसका स्वागत-सत्कारपूर्वक अर्चन करना चाहिये ।
14. विवाह संस्कार (Vivaah Sanskar) :-
पुराणोंके अनुसार ब्राह्म आदि उत्तम विवाहोंसे उत्पन्न पुत्र पितरोंको तारनेवाला होता है । विवाह का यही फल बताया गया है । यथा विवाह-संस्कार का भारतीय संस्कृति में अत्यधिक महत्व है । जिस दार्शनिक विज्ञान और सत्यपर वर्णाश्रमी आर्यजाति के स्त्री-पुरुषोंका विवाह-संस्कार प्रतिष्ठित है, उसकी कल्पना दुर्विज्ञेय है । कन्या और वर दोनोंके स्वेच्छाचारी होकर विवाह करनेकी आज्ञा शास्त्रोंने नहीं प्रदान की है । इसके लिए कुछ नियम और विधान बने हैं, जिससे उनकी स्वेच्छाचारिता पर नियंत्रण होता है । पाणिग्रहण-संस्कार देवता और अग्निके साक्षित्वमें करनेका विधान है । भारतीय संस्कृति में यह दाम्पत्य-सम्बन्ध जन्म-जन्मांतर, युग-युगांतर माना गया है ।
15. विवाहाग्निपरिग्रह (Vivaahaagniparigrah) :-
विवाह संस्कार में लाजा-होम आदि क्रियाएं जिस अग्निमें संपन्न की जाती है, वह आवसथ्य नामक अग्नि कहलाती है । इसीको विवाहाग्नि भी कहा जाता है । उस अग्निका आहरण तथा उसकी परिसमूहन आदि क्रियाएँ इस संस्कार में सम्पन्न होती है । शास्त्रों में निर्देश है कि किसी बहुत पशुवाले वैश्यके घरसे अग्निको लाकर विवाह-स्थलकी उपलिप्त पवित्र भूमि में परिसमूहन तथा पर्युक्षणपूर्वक उस अग्नि की मन्त्रों से स्थापना करनी चाहियें और उसी स्थापित अग्नि में विवाह सम्बन्धी लादा-होम तथा औपासन होम करना चाहिये । तदनन्तर अग्निकी प्रदक्षिणा कर स्विष्चकृत् होम तथा पूर्णाहुति करने का विधान है ।
विवाहके अनंतर जब वर-वधु अपने घर आने लगते है तब उस स्थापित अग्निको घर लाकर किसी पवित्र स्थान में प्रतिष्ठित कर उसमें प्रतिदिन अपनी कुलपरम्परानुसार सायं-प्रातः हवन करना चाहिये । यह नित्य-हवन-विधि द्विजातिके लिए आवश्यक बतायी गयी है । सनातन संस्कृति में इस संस्कारका अत्यन्त महत्व है ।
16. त्रेताग्निसंग्रह संस्कार (Tretaagnisangrah Sanskar) :-
स्मार्त या पाकयज्ञ-संस्थाके सभी कर्म वैवाहिक अग्निमें तथा हविर्यज्ञ एवं सोमयज्ञ-संस्थाके सभी श्रौत-कर्मानुष्ठानादि कर्म वैतानाग्नि (श्रौताग्नि-त्रेताग्नि) में सम्पादित होते हैं । इसके पूर्व विवाहाग्निपरिग्रह- संस्कारके परिचय में यह स्पष्ट किया गया है कि विवाह में घर में लायी गयी आवसथ्य अग्नि प्रतिष्ठित की जाती है और उसी में स्मार्त कर्म आदि अनुष्ठान किये जाते हैं । उसकी स्थापित अग्निसे अतिरिक्त तीन अग्नियों (दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य तथा आहवनीय) की स्थापना तथा उनकी रक्षा आदि का विधान भी शास्त्रों में निर्दिष्ट है । ये तीन अग्नियाँ त्रेताग्नि कहलाती है, जिसमें श्रौतकर्म सम्पादित होते हैं । जैसे वेदाध्ययन आवश्यक बताया गया है और वेदाध्ययन का प्रयोजन यज्ञ-कर्मोमें पर्यवसित है, जिससे पुण्य और सद्गति प्राप्त होती है, वैसे ही इस त्रेताग्नि-क्रियाको आवश्यक तथा महत्व का संस्कार बताया गया है । इसी दृष्टि से इसे अन्तिम संस्कार भी माना जाता है । शास्त्रों में यह निर्देश है कि गृहस्थ एक स्वतन्त्र यज्ञशाला में जिसे त्रेताग्निशाला भी कहा गया है, पूर्वोक्त तीन अग्नियोंकी विधिवत् स्थापना करे और उसमें हवनादि कार्य करे ।
अन्त्येष्टिक्रिया :-
कुछ आचार्यो ने मृत-शरीर की अन्त्येष्टिक्रिया को भी एक संस्कार माना है, जिसे पितृमेध, अन्त्यकर्म, अन्त्येष्टि अथवा श्मशान कर्म आदि नामोंसे भी कहा गया है । इस संस्कार में मुख्यतः संस्कृत अग्निसे दाहक्रिया से लेकर द्वादशाहतक के कर्म सम्पन्न किये जाते हैं । मृत व्यक्तिके शरीरको स्नान कराकर, वस्त्रोंसे आच्छादित कर, तुलसी-वर्ण आदि पवित्र पदार्थों को अर्पित कर, शिखासूत्र-सहित उत्तर की ओर सिर करके चिता में स्थापित करना चाहिये और फिर औरस पुत्र या सपिण्डी या सगोत्री व्यक्ति सुसंस्कृत अग्निसे मन्त्रसहित चितामें अग्नि दे । अग्नि देनेवाले व्यक्तिको बारहवें दिनतक सपिण्डन-पर्यन्त सारे कर्म करने चाहिये । तीसरे दिन अस्थिसंचयन करके दसवें दिन दशाह कर तिलांजलि देनी चाहिये । दस दिन तक आशौच रहता है, उसमें कोई नैमित्तिक कार्य नहीं करने चाहिये ।
Heer Trivedi
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